उर्दू को लेकर केंद्र सरकार एक बड़े फैसले के करीब है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने प्रधानमंत्री को खत लिख कर कहा है कि NCPUL – National Council For Promotion of Urdu Language – को HRD यानी शिक्षा मंत्रालय से लेकर उनके मंत्रालय यानी माइनोरिटी अफेयर्स को सौंप दिया जाए। पीएमओ ने इस बाबत शिक्षा मंत्रालय से राय मांगी। मंत्रालय ने NCERT और NCPUL से सलाह मशविरा किया। दोनों काउन्सिल नकवी जी की राय की मुखालफत कर रहे हैं।
इस खबर के मायने क्या हैं?
संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है, ऊर्दू इनमें से एक है। इन में से ज्यादातर भाषाएं खास इलाके या राज्य में बोली जाती हैं, लेकिन सरकार और संविधान ने इन सबको एक समान गौरव और सम्मान दिया है। अब अगर सरकार उर्दू की तरक्की के नाम पर इसे अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के सुपुर्द कर देती है तो डर है कि उर्दू पर सिर्फ अल्पसंख्यक यानी इस मामले में सिर्फ मुसलमानों की भाषा होने का टैग लग जाएगा।
राजनीतिक तौर पर इसे केंद्र सरकार की बहुसंख्यकवाद की राजनीति के एक्सटेंशन के तौर पर भी देखा जा रहा है।
सवाल है क्या उर्दू सिर्फ मुसलमानों की भाषा है ?
इसे दो कविताओं के जरिए समझिए –
पहली कविता
सीधा सादा डाकिया , जादू करे महान
एक ही थैले में भरे, आंसू और मुस्कान
दूसरी कविता
मुझमें रहते हैं करोड़ो लोग, चुप कैसे रहूं
हर गजल अब सल्तनत के नाम बयान है
अब अगर आपने पहले ये कविताएं नहीं सुनी हैं तो क्या आप ये बता पाएंगे कि इनमें से कौन सी कविता हिन्दू ने लिखी है और कौन सी मुसलमान ने ?
आपके समझने के लिए बताए देते हैं कि डाकिया पर लिखा है निदा फाजली ने और दूसरी कविता है दुष्यंत कुमार की।
अब बात वहां से शुरू करते हैं जब हमारे देश में पहली बार उर्दू में लिखा जाना शुरू हुआ। तेरहवीं शती में ये किया अमीर खुसरो ने। शायर, गायक और संगीतकार खुसरो। ख़याल गायकी, सूफियाना अंदाज़ और कभी हिन्दवी तो कभी खालिस फारसी की शायरी।
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहूं देस
आठ सौ साल पहले लिखे गए इस गीत को आप क्या कहेंगे- क्या ये हिन्दी नहीं है? क्या ये फारसी है ?
कहते हैं ये गीत खुसरो ने तब लिखा जब उनके गुरु निजामुद्दीन औलिया का आखिरी वक्त आ गया था। गोरी के सेज पर सोने का यही मतलब है और रैन भई चहुं देस का अर्थ है कि अब मेरे लिए इस दुनिया में हर ओर सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा है।
खुसरो जब फारसी में औलिया के लिए लिखते थे तो कुछ ऐसा लिखते थे –
मन तू शुदम, तू मन शुदी
मन जान शुदम, तू तन शुदी
ता नागुयाद कसी पास अजीन
मन दीगरम, उ तू दीगरी।
यानी मैं तू हो गया हूं और तू हो गया है मैं। मैं जान बन गया
हूं…और तू बन गया है शरीर। अब से कोई न कह सकेगा… कि मैं और हूं और तू कोई और।
इसी को वो हिन्दवी में कुछ इस तरह कहते हैं –
खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग।।
मतलब ये कि उर्दू किसी एक मजहब की नहीं, मोहब्बत की भाषा है, इसकी तरक्की के लिए नीति हो, राजनीति नहीं ।